प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- गुप्त प्रशासन पर विस्तृत रूप से एक निबन्ध लिखिए।
अथवा
गुप्त प्रशासन के विषय में आप क्या जानते हैं? वर्णन कीजिए।
अथवा
गुप्त प्रशासन पर प्रकाश डालिए।
अथवा '
गुप्त प्रशासन की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
'गुप्त प्रशासन' पर एक लेख लिखिए।
अथवा
गुप्त शासन प्रणाली पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
उत्तर-
गुप्तकालीन शासन व्यवस्था उच्च कोटि की थी। गुप्तकालीन प्रशासन की प्रमुख विशेषता है- सत्ता का विकेन्द्रीयकरण। दूसरी विशेषता यह है कि सम्पूर्ण साम्राज्य में एक जैसी शासन व्यवस्था का न होना। तीसरी विशेषता है- मौर्य प्रशासन की तुलना में केन्द्रीयकरण में कमी। इन्हीं विशेषताओं के आलोक में हम गुप्त प्रशासन को समझ सकते हैं। शासन व्यवस्था की दृष्टि से प्रशासन को निम्न चरणों में विभाजित किया जा सकता है-
(i) केन्द्रीय शासन व्यवस्था,
(ii) प्रांतीय शासन व्यवस्था
(iii) विषय स्तरीय शासन व्यवस्था,
(iv) ग्रामीण शासन व्यवस्था।
(i) केन्द्रीय शासन-व्यवस्था - गुप्त साम्राज्य का शासन सम्राट में केन्द्रित था। गुप्त शासक अपने को महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभागवत्, परमदैवत्, सम्राट, चक्रवर्ती, परमभट्टारक आदि विरुद से विभूषित करते थे। समुद्रगुप्त को एक शिलालेख में 'लोक धाम्रो देवस्य' कहा गया है। 'दैवी भावना का विकास भी इस युग में हो रहा था और इसका प्रमाण 'याज्ञवल्क्य स्मृति' और 'नारद स्मृति' में मिलता है। साम्राज्य का अस्तित्व अनेक राज्यों के संगठन से विद्यमान था। सम्राट की प्रभुता सर्वत्र व्याप्त थी। कर्मदण्डा - लेख में चारों समुद्रपर्यन्त सम्राट के यशविस्तार का वर्णन मिलता है। इस बात का समर्थन जूनागढ़ लेख से भी होता है। केन्द्रीय शासन से पद्धति का तात्पर्य है, जो राजधानी में शासनकर्त्ताओं से सम्बद्ध थी। सम्राट ही राज्य का प्रधान होता था। एकतांत्रिक शासनप्रणाली में राजा राज्य का सर्वोपरि अधिकारी होता ही है और राज्य की अंतिम सत्ता उसी के हाथ रहती थी। गुप्तकाल में कुमारों द्वारा राजपद पाने के लिए ज्येष्ठाधिकार का नियम बराबर नहीं लागू होता था। पिता द्वारा उत्तराधिकारी का चुनाव प्रायः योग्यता के आधार पर होता था। गुप्त अभिलेखों में उत्तराधिकारी के लिए तत्परिगृहीत शब्द का प्रयोग भी मिलता है। उत्तर- भारत में गुप्त साम्राज्य का गृहराज्य काफी बड़ा था, परंतु उसका स्वरूप बहुत-कुछ मांडलिक था और सामंतों द्वारा सम्राट अपने कर्त्तव्यों का पालन करता था। बहुत सारे लोगों ने राजमुद्रा से अंकित फरमान स्वीकार किए थे। सामंतों की भी कई श्रेणियाँ थीं। सम्राट सर्वशक्तिमान होता था और कोई भी उसके कार्य में हस्तक्षेप करने का साहस नहीं कर सकता था। गुप्त सम्राटों ने अपनी वैयक्तिक शक्ति, साहस और प्रताप से एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी, अतः शांतिकाल में उनके शौर्य का प्रभाव देखा जा सकता था। समुद्रगुप्त को वरुण और इन्द्र के समकक्ष कहा गया है।
मंत्री - सम्राट को शासन-कार्य में सहायता देने के लिए मंत्री अथवा सचिव हुआ करते थे, जिनकी कोई संख्या निश्चित नहीं थी। अमात्यगण केवल राजा की सहायता करने तथा मंत्रणा देने के लिए नियुक्त होते थे। 'नारद स्मृति' में राज्य की एक सभा का उल्लेख है, जिसके सभासद धर्मशास्त्र में कुशल, अर्थज्ञान में प्रवीण, कुलीनं और सत्यवादी थे, गुप्तयुग में मंत्रियों का पद बहुधा कुलागत होता था। उदयगिरि के लेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय के सांधिविग्रहिक शाबवीरसेन को 'अन्वयप्राप्तसाचिव्यों व्याप्ततः सांधिविग्रहः' शब्दों से अलंकृत किया गया है। करमदंडा - लेख इस बात का हवाला देता है कि कुमारगुप्त प्रथम के मंत्री पृथ्वीषेण का पिता शिखरस्वामिन भी चन्द्रगुप्त द्वितीय का मंत्री रह चुका था। इस दिशा में गुप्त सम्राटों ने स्मृतियों के आदेशों का अक्षरशः पालन किया। एक मंत्री एक से अधिक विभागों के कार्यों का भी संचालन करता था। प्रशस्तिकार हरिषेण एक ही साथ सांधिविग्रहिक, कुमारामात्य और महादंडनायक था। उसका पिता ध्रुवभूति भी महादंडनायक था। शाबवीरसेन अपने समय का प्रकांड पण्डित था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने आम्रकार्दव नामक एक योग्य एवं समरजेता व्यक्ति को उच्च पद पर नियुक्त किया। विभिन्न लेखों से क्रमागत मंत्रिपद का स्पष्ट प्रमाण मिलता है।
मंत्रिपरिषद् - राजा अपने मंत्रियों की मंत्रणा तथा सहायता से शासन करता था। उनमें से कुछ युद्ध सम्बन्धी और दैनंदिन, दोनों प्रकार के शासन की व्यवस्था करते थे और सम्राट के साथ युद्धभूमि में भी जाते थे। राजा तथा मंत्रिगण की सम्मिलित रूप से एक मंत्रिपरिषद् होती थी। राजा उसका प्रधान होता था और प्रत्येक विभाग का मुख्य अधिकारी एक-एक मंत्री। मंत्रियों पर विभिन्न विभागों का भार रहता था। कई मंत्रियों के हाथ शासन और सेवा दोनों का भार होता था। सांधिविग्रहिक, अक्षपटलाधिकृत, महादंडनायक, कुमारामात्य आदि पदों का उल्लेख विभिन्न लेखों में मिलता है। मंत्रिपरिषद् के कारण राज्य प्रबंध सुचारु रूप से होता था। मंत्रिमण्डल में 'पुरोहित' शब्द का उल्लेख इस काल में नहीं मिलता। सांधिविग्रहिक मंत्रिपरिषद् का प्रमुख सदस्य था।
केन्द्रीय अधिकारी - गुप्तकालीन अभिलेखों में निम्नलिखित अधिकारियों का उल्लेख मिलता है - महासेनापति सम्राट यों स्वयं सेना का संचालन करते थे, परन्तु उनके अधीन महासेनापति भी होते थे, जो साम्राज्य के विविध भागों में सैन्य संचालन के लिए नियुक्त रहते थे। सेना का सर्वश्रेष्ठ अधिकारी महासेनापति कहलाता था।
रणभाँडागारिक - सेना के लिए सब प्रकार की सामग्री जुटाना इसी कर्मचारी का काम था। वैशाली की मुहर में इस कर्मचारी का उल्लेख है।
महाबलाधिकृत - सेना, छावनी और व्यूह-रचना के विभागों का अधिकार इसी के हाथ था। इसके अधीन अनेक बलाधिकृत होते थे। गुप्त लेख में 'महाबलाधिकृत' और 'महाबलाध्यक्ष' का प्रयोग मिलता है। यह सर्वोच्च सेनाध्यक्ष था। वैशाली - लेख में 'बलाधिकृत' शब्द का उल्लेख है और वह संभवतः सैनिकों की नियुक्ति करता था।
दंडपाशिक - यह पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी था। इसके अधीन अनके कर्मचारी होते थे, जिनमें चौरोद्धरणिक, दूत, भट आदि प्रसिद्ध थे। इसे 'दंड पाशाधिकरणिक' भी कहते हैं।
महादंडनायक - महासेनापति के अधीन यह युद्ध के अवसर पर सेना का नेतृत्व करता था। गुप्तकालीन सेना के तीन प्रधान विभाग थे- पदाति, घुड़सवार और हाथी। महादंडनायक के अधीन महाश्वपति, अश्वपति, महापीलुपति, पीलुपति आदि अनेक सेनानायक रहते थे। साधारण सैनिक को 'चाट' और सेना की छोटी टुकड़ी को 'चमू' कहते थे। चमू का नायक 'चमूप' कहलाता था। युद्ध के लिए परशु, शर, अंकुश, शक्ति, तोमर आदि अस्त्रों का व्यवहार होता था। महादंडनायक न्यायाधीश भी होता था।
महासांधिविग्रहिक - यह पड़ोसी राज्यों, गणराज्यों और सामंतों के साथ संधि या विग्रह की नीति का अनुसरण करता था। यह सम्राट का अत्यंत विश्वासी और प्रियपात्र होता था और साम्राज्य की नीति निर्धारित करता था। इसे 'सांधिविग्रहाधिकरणाधिकृत' भी कहते थे।
विनयास्थितिस्थापक - धर्मनीति की स्थापना ही इसका मुख्य कार्य था। इसे शांति और व्यवस्था का मंत्री भी कहा गया है।
भांडागाराधिकृत - यह कोष विभाग का अध्यक्ष होता था।
महाक्षपटलिक- राज्य के सभी आदेशों को सुरक्षित रखना और राजकीय आय-व्यय के ब्योरे को सुरक्षित रखना इसका कार्य था।
सर्वाध्यक्ष - यह केन्द्रीय कार्यालय का सर्वाधिकारी होता था।
महाप्रतिहार - यह राजप्रासाद का प्रमुख कर्मचारी होता था। कुमारामात्य- यह उच्च अधिकारियों का एक समूह था।
प्रांतीय प्रशासन - प्रशासनिक सुविधा के लिए सम्पूर्ण साम्राज्यों को प्रांतों में विभाजित किया गया था जिसे देश, अवनी अथवा भुक्ति कहा जाता था। उसका प्रमुख उपरिक होता था जो राजा द्वारा नियुक्त किया जाता था जो राज परिवार से सम्बन्धित होता था। गुप्तकालीन प्रमुख प्रांत इस प्रकार हैं-
पुण्ड्रवर्धन भुक्ति - यहाँ कर्मकायस्थवंशीय उपरिक महाराज जयदत्त और ब्रह्मदत्त का उल्लेख मिलता है।
वर्धनमान भुक्ति - (बंगाल का एक भाग) महाराज विजयसेन का उल्लेख इसमें मिलता है। तीरभुक्ति इसका राज्यपाल गोविन्दगुप्त था।
श्रावस्ती भुक्ति - (अवध); अहिच्छत्र भुक्ति (बुन्देलखण्ड )।
मंदसौर -
कौशाम्बी - मध्य प्रदेश में ये दोनों प्रांत थे।
सौराष्ट्र - यहाँ पर्णदत्त नामक गोप्ता या राज्यपाल था।
मगध या श्रीनगर भुक्ति - दक्षिणी बिहार।
नव्यावकाशिक भुक्ति -यहाँ नागदेव नामक राज्यपाल था।
जिला प्रशासन - प्रांतों के अतिरिक्त जिले (विषय) और उनसे छोटे भी शासन के हलके थे। जिले का अध्यक्ष विषयपति सीधे प्रांतीय शासक के प्रति उत्तरदायी था और तत्रियुक्तक कहलाता था। उसका प्रधान कार्यालय 'अधिष्ठान' में होता था, जहाँ अधिकरण अर्थात् ऑफिस रहता था। उसकी सहायता के लिए भी स्थानीय प्रतिनिधियों की एक समिति होती थी। विषय में चार सदस्यों की एक गैर-सरकारी परामर्श समिति कार्य करती थी। इसमें नगर श्रेष्ठी, सार्थवाह, प्रथम कुलिक और प्रथम कायस्थ होते थे, जो क्रमशः नगर, व्यापार, उद्योग और शासन का प्रतिनिधित्व करते थे।
विषयों में लाट विषय, त्रिपुरी विषय, ऐरिकिन विषय प्रमुख थे। प्रदेशों में ऐरिकिन, अंतर्वेदी, वाल्वी, कोटिवर्ष, महाखुशापार, खंडाहापार, कुंडधानि आदि प्रमुख थे। देश के शासक को 'गोप्ता' कहते थे और भुक्ति के शासक को उपरिक या उपरिक महाराज। विषयपति प्रायः कुमारामात्य तथा आयुक्तक अथवा मातृविष्णु जैसे सामंत भी होते थे। अंतर्वेदी के सर्वनाग सीधे सम्राट के अधीन थे, जबकि कोटिवर्ष, ऐरिकिन और त्रिपुरी के विषयपति राज्यपाल के अधीन काम करते थे। मंदसौर- अभिलेख से सेनाधिप अथवा नायक वायुरक्षित तथा उसके पुत्र दत्तभट्ट, राजा प्रभाकर के मुख्य सेनापति का उल्लेख भी मिलता है। वीथी नामक एक अन्य क्षेत्रीय इकाई का पता चलता है।
स्थानीय प्रशासन - स्थानीय शासन के अंतर्गत नगर और ग्राम का शासन आता था। गुप्तकाल में अनेक नगर थे तक्षशिला, उज्जैन, मंदसौर, पाटलिपुत्र, सौराष्ट्र आदि। इनके शासन के लिए नगरपालिकाओं का प्रबंध था। नगरों में नगरसभा होती थी। नगरपति द्रङ्गिक कहलाता था और वह व्यापारियों तथा नगरवासियों से कर संग्रह करता था। वह जनता के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखता था। नगरपति की नियुक्ति विषयपति द्वारा होती थी। स्कंदगुप्त के समय पर्णदत्त का पुत्र चक्रपालित सौराष्ट्र में नगरपति के पद पर था। उसने सुदर्शन झील की फिर से मरम्मत करवाई थी। कोटिवर्ष, वैशाली, गिरनार आदि स्थानों का नगरशासन संगठित था। नगर संबंधी सभी बातों का नियंत्रण नगर सभाओं के अधीन था। शहर में परपाल नामक एक कर्मचारी का उल्लेख भी मिलता है। पुरों की निगम सभाएं भी विद्यमान थीं। नगरपालिकाओं का मंत्री परपाल उपरिक होता था।
ग्राम-शासन - प्रत्येक ग्राम का अपना क्षेत्रफल होता था। ग्राम के अधिपति ग्रामपति या महत्तर तथा भोजक कहलाते थे। ग्रामपति की सहायता के लिए एक छोटी-सी समिति होती थी, जिसे पंचायक कहते थे, शूद्रक- -रचित मृच्छकटिक के अनुसार भोजक के साथ श्रेष्ठिन तथा कायस्थ भी थे। व्यवहारमंडल तथा नगररक्षाधिकृत की सहायता के लिए अधिकरण भोजक, महत्तर आदि भी हुआ करते थे। इस संस्था का उल्लेख गुप्त - लेखों में भी है। चंद्रगुप्त द्वितीय के सेनापति आम्रकार्दव द्वारा ग्रामपंचायत के सम्मुख एक गांव तथा 25 दीनार के दान का वर्णन किया है। ग्राम पंचायत अपने कार्य में स्वतंत्र थी। दामोदरपुर ताम्रलेख में ग्रामसभा के निम्न अधिकारियों का उल्लेख मिलता है- महत्तर, अपटकुलाधिकारी, ग्रामिक तथा कुटुम्बिन इन्हीं चार अधिकारियों द्वारा ग्राम सभा का संचालन होता था।
न्याय प्रशासन - नीति और स्मृति के ग्रंथों से स्पष्ट होता है कि न्याय का विधान पक्षपात रहित होता था। राजा न्याय का सर्वोच्च अधिकारी था। न्यायाधीश स्वयं भी गंभीर विद्वान हुआ करते थे। न्यायालय चार प्रकार के थे- राजा का न्यायालय, पूग, श्रेणी तथा कुल। प्रत्येक न्यायालय अपनी सीमा में स्वतंत्र था। अंतिम निर्णय राजा के समीप ही होता था। समुद्रगुप्त के समय हरिषेण प्रधान न्यायाधीश था। शिखरस्वामी भी न्याय का पंडित था। गुप्तलेखों में दंडनायक, महादंडनायक, सर्वदंडनायक, महासर्वदंडनायक आदि न्याय- पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं। न्यायालयों में प्रमाण की आवश्यकता होती थी और साक्षी की भी। गुप्तकाल में दंड सरल था। प्रायः अर्थदंड ही दिया जाता था। फाहियान के अनुसार प्रजा नागरिक अधिकारों से इतनी विज्ञ थी कि अपराध का नाम ही नहीं था। गुप्तकाल में न्याय का कार्य अत्यंत सरल रूप से होता था। शारीरिक दंड देने वाले कर्मचारी को दांडिक कहा जाता था। फाहियान की चोर डाकुओं से मुलाकात नहीं हुई थी इससे अनुमान लगाया जाता है कि पुलिस-प्रशासन बहुत उच्च स्तर का था। पुलिस के बड़े अफसरों को दंडपाशाधिकरण और दंडपाशिक कहते थे।
सैन्य व्यवस्था - गुप्त सेना विशाल एवं सुसंगठित थी। सेना का सर्वोच्च अधिकारी महाबलाधिकृत कहलाता था। हाथियों के सेना के प्रमुख को महापीलुपति तथा घुड़सवार सेना के प्रमुख को भटाश्वपति कहते थे। सैन्य साजो- समान की देख-रेख करने वाला प्रधान अधिकारी 'रणभण्डाग्परिक' होता था। गुप्त सम्राट स्वयं कुशल योद्धा होते थे तथा युद्ध में भाग लेकर सेना का संचालन स्वयं करते थे। सैन्य योग्यता को प्रमुखता प्रदान किया गया था इसलिए मंत्रियों के लिए भी सैनिक दृष्टि से योग्य होना आवश्यक था।
राजस्व प्रशासन
आय - राज्य की आय के कई प्रमुख साधन थे। सबसे अधिक आय भूमि कर से होती थी, परन्तु इसके और भी कई साधनों का उल्लेख तत्कालीन साहित्य और लेखों से मिलता है; जैसे नियमित कर, सामयिक कर अर्थदंड, राज्य-सम्पत्ति से आय और अधीनस्थ सामंतों से प्राप्त उपहार।
नियमित कर के अन्तर्गत उद्रङ्ग, उपरिकर, भूतोपात्तप्रत्याय, विष्टि तथा अन्य प्रकार के कर थे। राजा उपज का छठा भाग कर के रूप में लेता था। भूमिकर संग्रह के लिए ध्रुवाधिकरण था और भूमि-सम्बन्धी लेखों को सुरक्षित रखने के लिए पुस्तपाल, महाक्षपटलिक तथा कारणिक थे। भूमि नापने की व्यवस्था भी थी। परिमिति को 'पादवर्त' कहा जाता था। प्रत्येक भूमि की सीमा निर्धारित की जाती थी तथा सरकारी लेखों में उसका विवरण रखा जाता था। भूमि नापने वाले को 'प्रमातृ' तथा सीमा निर्धारित करने वाले को 'सीमाकार' या 'सीमाप्रदातृ' कहते थे। भूमि सम्बन्धी झगड़ों के निपटारे के लिए राजा की ओर से 'न्यायाधीकरण' नियुक्त रहता था। कृषि की वृद्धि के लिए कुएँ, तालाब और नहरों का निर्माण किया जाता था। दामोदरपुर ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि भूमि दान में दी जाती थी। वह बेची नहीं जा सकती थी, ताकि उसकी उपज से दान का उद्देश्य पूरा हो सके। कृष्ट भूमि को क्षेत्र कहते थे। भूमि के और भी कई प्रकार होते थे; जैसे खिल, अप्रहत, अप्रतिकर शिलालेखों में वर्णित निम्नांकित कर हैं-
कर, प्रणय - अनिवार्य या स्वेच्छ चंदा, विष्टि- बेगार, पुष्प और चीर से आय, दूध के लिए गाय और यातायात के लिए बैल, चर्मागारक चमड़ा और कोयला, चारासन, लवण, क्लित्र, किण्व, मुक्तवाहन, भट; चाट द्वारा अप्रवेश्य दशापराध पर किए गए जुर्माने, भोगभाग खान की आय। उपज के आधार पर भूमि के कई प्रकार थे नाल, खिल, वास्तु, अप्रहत और अप्रदा।
भूतोपात्तप्रत्याय के अर्थ को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद है। यह एक प्रकार का कर था, जो भीतर आने वाली तथा उस स्थान पर पैदा होने वाली वस्तुओं पर लगाया जाता था। गुप्तकालीन लेखों में स्थूल रूप से जिन 18 प्रकार के करों का निर्देश दिया गया है उनमें इसका विवरण नहीं है। प्रजा से हिरण्य के रूप में भी कर वसूल किया जाता था और व्यापारियों से 'चुंगीकर'। अग्रहार ग्राम 'चाट - भाट प्रवेश - दंड' से मुक्त रहता था।
व्यय-कामंदक के अनुसार राजकीय व्यय द्वारा राजा तिवर्ग की उपलब्धि करता था। राजप्रबंध में काफी पैसे खर्च होते थे। राजकर्मचारी राजा की ओर से वेतन पाते थे, जिसका प्रमाण हमें फाहियान से मिलता है। सेना, पुलिस और तत्संबंधी अधिकारियों पर भी राज्य का पर्याप्त खर्च होता था।
इस प्रकार उपर्युक्त वर्णित विभिन्न तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि गुप्त शासकों ने एक विस्तृत प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण किया था। गुप्तकाल में ही पहली बार नगर तथा ग्रामों में स्थानीय प्रशासन का विकास किया गया और ग्राम सभाओं को वास्तविक अधिकार प्रदान किए गए।
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